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गुरुवार, 1 जुलाई 2021

जब कोई उम्मीद न रह जाए

जब नौकरी मिलने की कोई उम्मीद न रह जाए ।
जब स्कूल खुलने की कोई उम्मीद न रह जाए ।
जब धन्धा बिजनेस करने की कोई आजादी न रह जाए ।
जब लोगों से लोगों को भय लगने लग जाय ।
जब गांव के चौपाल में और गली के मोड़ पर दस लोग इकट्ठे हो कर आपसी हंसी-मजाक और मस्ती न कर पाएं ।
ऐसे में जब सारी उम्मीदें , सारे रास्ते बंद होने जैसे लगने लगे ।
तब ये समझना की ये भी एक प्रलय के ही समान है , चाहे छोटा प्रलय हो या बड़ा । जिसके ऊपर जैसी बीतती है उसे बेहतर एहसास होता है ।
ऐसी परिस्थिति , ऐसे दौर में जीने की आशा न कर के बल्कि लोगों के काम आकर मरना बेहतर होता है ।

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