अंदर से वो कांप रहा था ।
राम नाम को जाप रहा था ।।
पड जाए ना गांड पे डंडा ।
हालत ऐसी भांप रहा था ।।
अंदर से वो कांप रहा था
बहरुपियों का दादा था ।
सौ परसेंट नखादा था ।।
चिकनी बातों में उल्झा कर ।
रस्ता अपना नाप रहा था ।।
अंदर से वो कांप रहा था
समाज को उसने मारा लात ।
रिश्तों में करता था घात ।।
मित्र का मतलब वो क्या जाने ।
कुत्तों जैसे हांफ रहा था ।।
अंदर से वो कांप रहा था
जिसमें थी सारी मक्कारी ।
उसी से करता था वो यारी ।।
रुप बदलना बात बदलना ।
इसमें सबसे टाप रहा था ।।
अंदर से वो कांप रहा था
जावेद गोरखपुरी
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