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शनिवार, 28 मार्च 2020

रुक जाओ

जो जहां है वहीं रुक जाए मगर कैसे  ?
न रहने को घर, न खाने को रोटी। 
उन वीरों को सत सत नमन की जो पांच सौ
से एक हजार कि,मी, पैदल चलने का जजबा
ही नहीं बल्कि चल रहे हैं। 
जिसमें बिमार भी हैं, नन्हें बच्चे भी हैं सब भूखे
प्यासे हैं भले मर जायें मगर अपनी मंजिल को तैं 
जरूर करेंगे। 
घर पर भी तो मरना ही है महामारी से न सही 
भूख से तो मरेंगे  , संतुस्टी सिर्फ इस बात की है 
कि अपने घर में अपने लोगों के बीच मरने की इच्छा 
है । कोरोना से भी बड़ी महामारी तो ऐसे लोगों की है 
जिनके पास कुछ भी नहीं है। स्पष्ट खुल कर सामने आना शुरू हो चुका है। 
बेहतर तो ये था कि इन सभी लोगों को कोरोना पलायन
कैम्प में ठहराया जाए और सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जब हालात सुधरें तब लोगों को उनके घर पहुंचवाया जाय वरना लाकडाऊन के बावजूद इस 
महामारी को रोक पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन होगा जिसका परिणाम देश की आधी 
आबादी समाप्त हो सकती है। 
वैसे भी देश की एक चौथाई हिस्सा भूख से समाप्त होना तै है। रोज कमाने खाने वालों के उपर तो दोहरी महामारी आ पड़ी है। 
1- कोरोना वायरस 
2- रोटी की चिंता 
     बच्चों के पेट भरने के लिए इन्हें रोटी के आगे 
    कोरोना से कोई डर नहीं। 
    ईश्वर / अल्लाह सबका भला करे। 
    सभी बन्दों को हर रोग और दुख से बचाये। 

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